इच्छा मृत्यु और लिविंग वील को सुप्रीम कोर्ट ने दी इजाजत, कुछ शर्तों के साथ होंगे मान्य


नई दिल्ली - सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अध्यक्षता में पांच जजों की संविधान पीठ ने निष्क्रिय इच्छामृत्यु और लिविंग विल को वैध ठहराया है कोर्ट ने इस ऐतिहासिक फैसले को सम्मान के साथ में मृत्यु को एक मौलिक अधिकार बताया है सुप्रीम कोर्ट ने इसके बारे में विस्तृत जानकारियां दी है

क्या है इच्छामृत्यु?

किसी गंभीर या लाइलाज बीमारी से पीड़ित शख्स को दर्द से मुक्ति दिलाने के लिए डॉक्टर की मदद से उसकी जिंदगी का अंत कराया जा सकेगा। बता दे, इच्छामृत्यु भी दो प्रकार की होती है- निष्क्रिय इच्छामृत्यु और सक्रिय इच्छामृत्यु।
निष्क्रिय इच्छामृत्यु के अंतर्गत, अगर कोई व्यक्ति लंबे समय से कोमा में है तो उसके परिवार वालों की इजाजत के आधार पर उसे लाइफ सपोर्ट सिस्टम से हटाना निष्क्रिय इच्छामृत्यु है। सुप्रीम कोर्ट ने इसे इजाजत दी है। तो वही दूसरी ओर सक्रिय इच्छामृत्यु के अंतर्गत, किसी मरीज को जहर या पेनकिलर के इन्जेक्शन का ओवरडोज देकर मौत दी जाती है। बता दे, इसे भारत में सुप्रीम कोर्ट द्वारा मंजूरी नहीं दी गई है।

कहां से शुरू हुई बहस

यह मामला 1973 का है। अरुणा शानबाग नामक एक नर्स मुंबई के केईएम अस्पताल में कुत्तों को दवाई देने का काम करती थी। 27 नवंबर 1973 को अरुणा ने ड्यूटी पूरी की और घर जाने से पहले जब कपड़े बदलने के लिए बेसमेंट में गईं। तब वहां पहले से मौजूद वार्ड ब्वॉय सोहनलाल ने अरुणा के गले में कुत्ते बांधने वाली चेन लपेटकर अरुणा को अपने कब्जे में लेने की कोशिश की। लगातार चेन के दबाब से गले की नसें दबने से अरुणा बेहोश हो गईं, जिसके बाद अरुणा कोमा में चली गईं और कभी ठीक नहीं हो सकीं।
बयालिस साल तक कोमा में रहीं अरुणा शानबाग की 18 मई 2015 को मौत हो गई थी। उन्हें इच्छा या दया मृत्यु देने की मांग करने वाली जर्नलिस्ट पिंकी वीरानी की पिटीशन सुप्रीम कोर्ट ने 8 मार्च 2011 को यह कहकर ठुकरा दी थी कि वह पूरी तरह कोमा में न होते हुए दवाई, भोजन ले रही थीं। बता दे, डॉक्टरों की रिपोर्ट के आधार पर अरुणा को इच्छा मृत्यु देने की इजाजत नहीं मिली थी।

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